शनिवार, 8 मई 2010

कुण्डलिनी शक्ति


मनुष्य का जीवन वास्तव में दो प्रकार से संचालित होता है एक भौतिक जो वो शरीर से जीता है दूसरा अध्यात्मिक जो वो अंतरात्मा से जीता है इस दोहरे जीवन की परिपाटी का अध्यन करे तो हमें ज्ञात होगा ,यह पूरा संसार हमारे भीतर भी ठीक उसी तरह संचालित हों रहा है जैसा की बाहर दिखाई देता है आडोलन-विड़ोलन की स्थिति हमारे भीतर ही श्वश -प्रश्वाश के रूप में मंथन कर रही है ठीक उस तरह जैसे देव और दानव के द्वारा समुन्द्र मंथन हो रहा हो और अमृत कलश के रूप में प्राण का जागरण की क्रिया सम्पादित हो रही हो
मेरी यात्रा का ये वो सोपान है ,जहा प्रत्यक्ष हो या अप्रत्यक्ष मैजी रहा हु एक तरफ अथाह कष्ट और अशांति है जो मेरे शरीर से शुरू हुई है मेरे प्रारब्ध कर्मो के साथ मुझसे जुडी है वाही दूसरी और जीवन में आई प्रत्येक घटनाक्रमों का दौर मुझे ज्ञान की और प्रेरित कर रहा है मुझे आत्मदर्शन करा रहा है

मनुष्य का जीवन यदि दो भागो में विभाजित किया जाये तो १.अन्न्मय्कोष और दूसरा प्राणमयकोष है जहा हम अन्न्मय्कोष अर्थात भौतिकता की बात करते है तो हमारा जन्म कुटुंब ,परिवार ,रहन सहन ,उठाना ,बैठना ,संतान उत्पन्न करना ,पीढ़ी दर पीढ़ी का निर्वाह करना ,धन कमाना ,पद प्राप्ति की लालसा रखना ,जीवन मरण के चक्र में फंस कर बार बार जन्म लेकर पुनः अपने कर्मो को भुगतते जाना और अंत में मृत्यु को प्राप्त हो जाना तक ही सिमित रह जाता है वाही हम अपने प्राणमयकोष की बात करे तो यह ब्रम्हांड के रहस्यों और आत्मसाक्षात्कार के माध्यम से हमारे होने की वजह को .हमारे होने की वजह को दर्शाता है जहाँ मानव जीवन -मरण पाप -पुण्य से मुक्त हो कर स्वयं का आत्मदर्शन करता है और उस महान दिव्या स्थली स्वर्ग अर्थात "शांतिधाम का अधिकारी बन जाता है
कई बार साधको के मन में यह कौतुहल का विषय होता है की आत्मसाक्षात्कार होता क्या विषय है?ये मनुष्य कैसे ज्ञात कर सकता है ?पर यदि हम स्वयं पर गौर करे तो हर अच्छी और बुरी घटना और उनसे जुडी अनुभूतियाँ ही वो पहली सीढ़ी है जहाँ हम कुछ देर के लिए दुनियादारी से हट कर हम स्वयं के बारे में सोचते है जिस प्रकार बिना ठेश लगे सोना गहने में नहीं गढ़ा जाता ठीक उसी तरह बिना पीड़ा के मनुष्य खुद को नहीं समझ सकता खुद को जानने के लिए प्रेरित नहीं हो सकता
"कुण्डलिनी शक्ति "एक ऐसा ही माध्यम है जिसके जागरण से मनुष्य आत्मसाक्षात्कार की ओर बढ़ सकता है यह मानव जीवन में छिपी एक ऐसी शक्ति केंद्र है जो नर से नारायण बनने की महानतम क्रिया का संपादन करती है हमें हमारे भीतर छिपे उस सात द्वार का परिचय कराती है जिसके माध्यम से आत्मजागरण कर मानव विलक्षणता को प्राप्त करता है

कुण्डलिनी क्या है ?यह भी जिज्ञासा का विषय है हमारे ऋषि -मुनियों ने दिव्या ज्ञान कैसे पाया ?कैसे यही बैठे उन्होंने वो सब कुछ कह डाला ओर लिख डाला ?जो अत्यंत ही रहस्यमयी रहा पंचमहाभूतो से बने शरीर में दृश्यता है पर त्रियामी शक्तिया वायु ,अग्नि और आकाश से बने स्थूलशक्तियों को हम देख नहीं पते केवल अनुभव ही करते है इसे देख पाना तभी संभव है जब हममें स्वयं दिव्यता का संचार हो और यह तभी संभव हो सकता है जब हमारे ज्ञान चक्षु खुले हो हमारे शरीर में तीन प्रधान नाडिया है ,जो हमारे पुर शारीर को नियंत्रित किये हुए है इडा अर्थात दाया स्वर पिंगला अर्थात बाया स्वर और सुषुम्ना नाडी जो हमारे श्वास नलिका के साथ हमारे मष्तिष्क में स्थित है जिसका जागरण ही त्रिनेत्र का खुलना कहा जाता है यही सिक्स सेन्स है श्वास -प्रश्वास के द्वारा ओक्सिजें गैस हमारे शारीर को उर्जा प्रदान कर रहा है जो श्वास हम लेते है वह सूक्ष्म रूप से हमारे भीतर प्रकाश उत्पन्न कर बाहरी और आंतरिक अनुभूतियाँ कराता है इसी को ही प्राण कहा गया है यही श्वास -प्रश्वास के द्वारा जब सुषुम्ना नाडी में समिश्रित होता है तब दिव्या प्रकाश उत्पन्न होता है इसी को ज्ञान का जागरण कहते है इसी को कुण्डलिनी कहा गया है इसके द्वारा हम देह के ही नहीं समस्त ब्रम्हांड के रहस्यों को जान सकते है

1 टिप्पणी:

YOGESH RAJORA ने कहा…

yaha ak divya ghan hai jo manusya ke liye atayant avashayak hai.